कहाँ हो तुम?



मैंने पूरा इन्द्रधनुष खोज डाला

मुझे वो कही न मिला

बारिश की बूंदे गिरी थी घाटी में

मैं हर पेड़ के पत्ते को हिला के आया

मुझे वो वहाँ भी ना मिला

घर पंहुचा

तो माँ बैठी थी

पूजा पर

उनके आँचल में सर रखकर

थोड़ी देर रो लिया

पर मुझे वो न दिखा

रात को चाँद की रौशनी भी छान के देखी

कहाँ हो तुम

मैंने काली रात के साए से पुछा

कोई आवाज़ न आई

मैं किताबों में उसे ढूँढने निकला

थोडा ज्ञान मिला

मैं इतराया

तुम हो मुझमे ही तो !

चलो अब तुम्हे अपने अन्दर ढूँढता हूँ

क्या तुम मस्तिष्क में हो , या दिल में

मेरी आँतों में हो

या बातों में ?

तुम्हारा बृह्म स्थल आखिर है कहाँ ?

कहीं तो हो

मुझमे ही

मैंने पड़ा है

कहाँ हो ?

मेरे भूत में हो या भविष्य में

या मेरे वर्तमान में

वक़्त के थमने में हो

या उसके गुज़र जाने में

क्या तुम इस संसार के हो ,

या अंतरिक्ष में ?

कितने यान भेजे मैंने

तुम्हारा पता पूछने के लिए

आकाशगंगा के उस पार

अनेक ग्रहों की ख़ाक छानी

सृष्टि की रचना

क्यों करी

किसलिए, कब और कहाँ

न जवाब मिला न तुम

मैंने हिन्दू बन के देखा

कभी मुसलमान

कभी बुद्ध में ढूंडा

कभी काब्बालाह में

कुरान शरीफ में ढूंडा

कभी गुरु ग्रन्थ में

कभी योग में ढूंडा

कभी तंत्र में

बहुत कसीदे पड़े

कुछ कहे भी

कभी अल्लाह कभी नानक कहा

मुझे रोका किसी ने ,

किसी ने ज्ञान दिया ,

किसी ने प्यार ,

किसी ने ध्यान दिया ,

तब मुझे भान हुआ

तुम किसे ढूँढ़ते फिरते हो बंधू

महसूस करो तो

सब जगह हूँ मैं

अंतर्यामी , सर्वव्यापी हूँ मैं

और न महसूस करो तो

कही नहीं हूँ मैं …

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