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Showing posts from March, 2010

The Games People Play

Is it self delusion or just an illusion when you know what I mean but it doesn't reach within something in your ego something in my mind goes into a loop and does a rewind say what you mean mean what you say life is not so simple with the games people play why go around in circles with so many hurdles doesn't make you small if you break down the walls so much manipulation leads to hurt and anger emotions on the run dried on a hanger Your ego gets a boost when it manipulates and rules conniving and contriving makes us look like fools you refuse to believe that ego plays a part in this merry-go-round with a tug of heart love, lies and deceit why are they intertwined you give and you recieve the way tis designed deal with your demons live a simple life clear up the cobwebs of your mind how does it matter who wins and who loses life is not a race for one who chooses to believe in oneself have a strong heart stick by your words live fair and smart dont hide behind silences they hurt...

Who wants to go to your town?

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Languid Lazy afternoon beckons me to slumber almost….. tis the fall season… dried tamarind leaves have turned white defiantly hanging on to the branches daring the wind to make them fall elsewhere leaves turn from green to yellow and than a pale shade of brown fluttering slowly to the ground in the warm breeze a quaint little village narrow roads lead to still narrower entrances marked with crossed iron bars step into a different world inside a big jamun tree majestic in the immense courtyard embraced by open corridors full of warm people in the hot afternoon flags atop the myriad temples perched on little mountains chequered shades of sun under the green trees little yellow shoots of green bursting out from the same stems who let go of the leaves earlier new giving way to the old so lovely and peaceful here who wants to go back to the hustle bustle of your town?

कहाँ हो तुम?

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मैंने पूरा इन्द्रधनुष खोज डाला मुझे वो कही न मिला बारिश की बूंदे गिरी थी घाटी में मैं हर पेड़ के पत्ते को हिला के आया मुझे वो वहाँ भी ना मिला घर पंहुचा तो माँ बैठी थी पूजा पर उनके आँचल में सर रखकर थोड़ी देर रो लिया पर मुझे वो न दिखा रात को चाँद की रौशनी भी छान के देखी कहाँ हो तुम मैंने काली रात के साए से पुछा कोई आवाज़ न आई मैं किताबों में उसे ढूँढने निकला थोडा ज्ञान मिला मैं इतराया तुम हो मुझमे ही तो ! चलो अब तुम्हे अपने अन्दर ढूँढता हूँ क्या तुम मस्तिष्क में हो , या दिल में मेरी आँतों में हो या बातों में ? तुम्हारा बृह्म स्थल आखिर है कहाँ ? कहीं तो हो मुझमे ही मैंने पड़ा है कहाँ हो ? मेरे भूत में हो या भविष्य में या मेरे वर्तमान में वक़्त के थमने में हो या उसके गुज़र जाने में क्या तुम इस संसार के हो , या अंतरिक्ष में ? कितने यान भेजे मैंने तुम्हारा पता पूछने के लिए आकाशगंगा के उस पार अनेक ग्रहों की ख़ाक छानी सृष्टि की रचना क्यों करी किसलिए, कब और कहाँ न जवाब मिला न तुम मैंने हिन्दू बन के देखा कभी मुसलमान कभी बुद्ध में ढूंडा कभी काब्बालाह में कुरान शरीफ में ढूंडा कभी गुरु ग्रन्थ में कभी...

ब्रह्म का आभास है, तो भ्रम का त्याग कर

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ब्रह्म का आभास है तो भ्रम का त्याग कर वक़्त रहते , होश अपने अनगिनत संभाल ले राह में कितने ही सर्प आते है, आयेंगे आदमी वो है जो इनको हर तरह पहचान ले क्या हूँ मैं, कौन हूँ किसलिए आया हूँ क्या तुम्हे और क्या मुझे जहाँ ये बतलायेगा मिटटी से उत्पन्न हुआ तू मिटटी में मिल जायेगा कुछ तो ज़िन्दगी का हौसला उधार ले वक़्त रहते होश अपने अनगिनत संभल ले रोज़ आती है मुश्किलें रोज़ आते है मकाम द्वंध ये चलता रहेगा दिल और दिमाग में क्या हुआ मेरा जो मुझमे पहले नहीं था क्या हुआ तेरा जो तूने सोचा नहीं था आज कल और बरसों में बीतेगी ज़िन्दगी पानी की धार है यह रोक तुम सकते नहीं बह गया तो बह गया जो रुक गया वो नर्क है दिल को अपने थाम कर ब्रह्म का आभास कर बैठती है खूबसूरत ख्वाहिशें हर राह में मोह माया है यहाँ हर एहसास में राग इर्ष्या द्वेष मिलते हैं बाज़ार में अहंकार की कमी है नहीं संसार में शून्य अपने आप को कर के तो देख ले एक बार ज़िन्दगी को ब्रह्म हो के देख ले ब्रह्म का आभास है तो भ्रम का त्याग कर वक़्त रहते , होश अपने अनगिनत संभाल ले

तुम चलोगी?

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आओ आज हम दोनों इस बेमौसम बरसात में अपने अपने गम भिगो ले तुम अपनी सारी का एक कोना काट के फेक दो इस सुलगती आग पर जिससे कभी तुमने पोछे थे उसके आँसू मैं भी अपने दिल से निकालू उस भूली याद को जब उसने मुझे कातिलाना नज़रों से देखा था पहली पहली बार तुम भी दिल को नश्तर करती उस शिकायत से पूछो क्या तुमने भी कभी मुझे याद किया या मैं ही सुलगती रही रात भर उम्र भर मैं भी उस बूढी ईमारत के सूखे पेड़ से जा के पूछूंगा तुमने तो देखा था हमे क्या कमी रह गयी थी मुझमे क्यों मिल गए ये सूखे दिन ये भूली रातें मुझे सौगात में तुम भी कह दो उन हवाओं से ना उलझाये तुम्हारी जुल्फें यूं की उलझ जाती है तुम्हारी आरज़ू इन्ही जुल्फों की कैद में आओ आज सब गिले शिकवे यहीं इसी आग में भस्म करें इन हवाओं को बाँट ले आधा आधा इन बूंदों से पूछे एक नया रास्ता और एक नयी ज़िन्दगी का पता लिखे रेगिस्तान की मिटटी पर पानी के अक्षर से एक साथ तुम चलोगी ?

God is within me, and without

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God is within me, and without He's in the twinkle of a child's eye and in warmth of a partner He's in the energies of my atheist friend and vivacity of another He's in the raindrop on my windowsill after a long night of storm He's in the auroras of North and the hot breeze of Sahara He's in the heart of a healer and in the faith of a patient He's in the blessings of a mother and entreaties of a child He envelopes me like a benevolent parent and puts his hand through my hair He guides me into challenges and stops me from falling He's in the song of my prophet and verse of my poet He whispers his innovations in my ear and shows me a kalaidescope in my dreams He's in the smile of a beggar and in benevolence of a rich man He's in the compassion of a thief and guilt of a criminal He's in this world and next and beyond all worlds and words He's in life and in death and beyond both My God, My Creator...