ख्वाबों की सचाईयाँ - कितनी झूठ कितनी सच

उस विशाल बरगद के पेड़ ने

फिर एक बार मुझे बुलाया

आओ बैठो

कुछ सपने और बुनो

एक नया गीत गाओ

क्यूँ समझते हो

ज़िन्दगी खत्महै अब..

मेरे हरे पत्तों की छाव में

कुछ काफिये मिलेंगे

उन्हें अपने शब्दों से पिरों के देखो

शायद कोई नया गीत निकले तुम्हारे लबों से

एक नयी आशा की उम्मीद है

धरा के परे

उस लाल रंग की किताब में

मैंने भी लिखी है उम्मीदें

कुछ छोटी कुछ बड़ी

कुछ खोटी कुछ खरी

फिर डर के बंद कर दिया किताब को

कहीं कोई देख ले तो

कहीं ये सच हो जाये तो

मैंने माँगा तो है

पर क्या ये मुझे चाहिए

कितनी सलीबें लेके चलती हूँ मैं

संभल संभल के

हर बार फिर गिरती हूँ मैं

फिर कहती हूँ

अब नहीं उठाऊँगी

इन उम्मीदों का बोझ

हर बार मुह की खाती हूँ मैं

और हर बार ललचा जाती हूँ मैं

मैंने कहा उस बरगद के पेड़ से

मुझे नहीं बुनने

तुम्हारे पत्तों से सपने

नहीं लेनी तुम्हारी टहनियों की आड़

नहीं चाहिए तुम्हारी ठंडी छाव

और तुम्हारे दिल के घाव

रहने दो मुझे मेरी

सच्चाईओं के साथ

इन्हें जानती हूँ

पहचानती हूँ

इनकी कमियों को भी मानती हूँ

पर ये मेरे सपने थे

जो सच हुए

इनको कैसे छोड़ दूं

ख्वाबों के लिए

जो न सच है

न सही.....

Comments