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Showing posts from May, 2010

पिघलता आसमान

पिघलता आसमान पिघली हुई सड़के गरम धुए सी ये हवा     जलते हुए   दिल जलते बदन दिल्ली की गर्मियों की ये सबाँ   मिटटी से धूल धूल सराबोर मदमाते जलती हुई सडको के करीब पेड़ों की पाँते   बड़ते हुए क़दमों के उठते पारे ढोते कितनी उम्मीदों   के निशान   कतरों में बटी ज़िन्दगी लम्हों में कटी ख्वाहिशें काट के देता हो जैसे कोई रोटी तुकड़ों की तरह.... The latest auto launches and test drives Drag n' drop

फिर से ये खलबली सी क्यों है

फिर से ये खलबली सी क्यों है साँसे बार बार आ के उखड़ी सी क्यों हैं आहों को कुछ समझ नहीं आता फिर ये तनहा इंतज़ार दिल में टीस सी क्या हैं फिर से क्यों पसंद आया है ये नामुमकिन गर्मियों का मौसम फिर से बादलों को तवज्जों क्यों है इन पीले फूलों के गुच्छे क्यों कसक सी उतारते हैं दिल में और गुलमोहर की लाली फलक के रंग लेके आई हैं क्यों ये तड़प उठी फिर घबरा के कुछ कर गुजरने की ये फिर उल्फत क्या है उफ़ ये क्यों नए से लगते हैं सारे पुराने नज़ारे कभी खुशबू कही नज़र कही बातों का है जादू एक पल की उदासी सदियाँ पार के आई है और चुपके से भर देती है दिल को नम है आखें नम है दिल नम है सारा जहाँ कोई सिरा नहीं मिलता कोई सिला नहीं मिलता कोई वजह नहीं कोई फरक नहीं सब डूबा डूबा सा है कभी आसूओं के रंग में कभी दिलकशी के रंग में कहीं धूआ धूआ सा है चारों तरफ और कभी खिलती है धुप इतनी हस के दूर तलक कुछ इस तरह से उतरते हो मेरे दिल में तुम गुनगुनाती है धुप परछाइओं में गुम

your absence

a room full of people so many words buzzing in the air life's playing out on a reality show food, drink, talk give hugs and smile somehow somewhere a constant presence of your absence steals over and consumes me slowly...

इतने बड़े संसार में कोई भी पूरा नहीं !

इतने बड़े संसार में कोई भी पूरा नहीं ! सब अधूरे से है !! कोई भी हीरा नहीं ! ज़ख्मों को अपने ऐसे समेटे चलते है थाम के वक़्त को अपने में लपेटे चलते है क्या सोचे, क्या कहे ..... सभी के घाव जलते हैं !! धुंध सी रहती हैं आखों में कहीं ख्वाबों को फिर भी पिरोतें रहते है आखों से निकलते नहीं आँसू ज़ख्मों को बतोरतें रहते है दिल की बातों का मतलब नहीं समझते शरीर के वाकिफों को तोल्तें रहते हैं अपनी ही सलीबों को जिन्हें उठाने की हिम्मत नहीं उन्हें हम क्या फफोलते रहते हैं वक़्त के दरिया में कितने हमसफ़र डूब के तैरते रहते हैं कैसी ये दुनिया बनायीं ऐ खुदा हर आदमी अपने ज़ख्मों का मरहम ढूँढता है यहाँ कभी धन में, मद में, मदिरा में, मंदिर में, किसी के आगोश में, और कोई तेरे दर पे आ जाता है अपनी धुन लेके ! टूटे टूटे से मिलते है यहाँ शीशे हर तरफ किस्मे देखे अक्स अपना किसको बनाये हमफिकर हे प्रभु, ये क्या लीला रचाई तूने सभी को अधुरा बनाया, सभी को घाव दीने इतने बड़े संसार में कोई भी पूरा नहीं !! सब अधूरे से हैं कोई भी हीरा नहीं !!

ख्वाबों की सचाईयाँ - कितनी झूठ कितनी सच

उस विशाल बरगद के पेड़ ने फिर एक बार मुझे बुलाया आओ बैठो कुछ सपने और बुनो एक नया गीत गाओ क्यूँ समझते हो ज़िन्दगी खत्महै अब.. मेरे हरे पत्तों की छाव में कुछ काफिये मिलेंगे उन्हें अपने शब्दों से पिरों के देखो शायद कोई नया गीत निकले तुम्हारे लबों से एक नयी आशा की उम्मीद है धरा के परे उस लाल रंग की किताब में मैंने भी लिखी है उम्मीदें कुछ छोटी कुछ बड़ी कुछ खोटी कुछ खरी फिर डर के बंद कर दिया किताब को कहीं कोई देख ले तो कहीं ये सच हो जाये तो मैंने माँगा तो है पर क्या ये मुझे चाहिए कितनी सलीबें लेके चलती हूँ मैं संभल संभल के हर बार फिर गिरती हूँ मैं फिर कहती हूँ अब नहीं उठाऊँगी इन उम्मीदों का बोझ हर बार मुह की खाती हूँ मैं और हर बार ललचा जाती हूँ मैं मैंने कहा उस बरगद के पेड़ से मुझे नहीं बुनने तुम्हारे पत्तों से सपने नहीं लेनी तुम्हारी टहनियों की आड़ नहीं चाहिए तुम्हारी ठंडी छाव और तुम्हारे दिल के घाव रहने दो मुझे मेरी सच्चाईओं के साथ इन्हें जानती हूँ पहचानती हूँ इनकी कमियों को भी मानती हूँ पर ये मेरे सपने थे जो सच हुए इनको कैसे छोड़ दूं ख्वाबों के लिए जो न सच है न सही.....